Friday 14 October, 2011

दीवार

दिन भर के काम से थक कर 
जब चूर हो जाती हूँ 
और दिमाग की सुईं 
अटक जाती है किसी बात पर 
तब मैं भी हार मान लेती हूँ 
और ताकने लगती हूँ अपने अन्दर 

पता चलता है की मैंने 
बड़ी महनत से कड़ी कर दी है
अपने भीतर एक दीवार
जो खुद से अलग कर रही है मुझे
उस दीवार के उस पार
एक अलग मैं हूँ
सब जिम्मेदारियों से दूर
उन्मुक्त, चंचल, नटखट
पर उस 'मैं' को घेरे है एक और 'मैं'
जिसने सीख लिया है बोझ उठाना
और खुद को परिस्तिथि के अनुसार
ढाले चल रही है
जिसे
वक़्त ने सिखा दिया है रंग बदलना
'मैं' घिर गई हूँ 
'मैं' बँट गई हूँ  
'मैं' बाहर भी हूँ, भीतर भी
'मैं' सूक्ष्म भी हूँ, साक्ष्य भी
'मैं' वजह भी हूँ, बेवजह भी
ये दीवार ईंट दर ईंट बढ़ रही है
मैं डर रही हूँ
जब ढांचा तैयार होगा तब क्या?
क्या मैं हमेशा के लिए कैद हो जाऊँगी?
या शायद आज़ाद हो जाऊँगी अपने आप से?
सवाल बहुत हैं
पर सुईं अटक गई है
और ये दीवार
दीवार ईंट दर ईंट बढ़ रही है

Monday 10 October, 2011

दाह


कितनी खुश थी मैं
उस छोटी सी चारदिवारी में 
जहाँ कई और भी थी मुझसी 
किसी की प्यास बुझाने को तैयार

याद आ रहा था मुझे बीता हुआ कल
जब उन सुर्ख होठों को छुआ था मैंने
जो मुझसे भी ज्यादा बेताब हुआ करते थे
मुझे छुने  के लिए

उफ्फ! वो मोहब्बत वो ज़माना याद आता था 
जब प्यार परवान चढ़ा करता था 
मैं उसके लिए और वो 
मेरे लिए जिया करता था

याद आ रही थी मेरे बदन पर नाचती उसकी उँगलियाँ
उसका बहुत प्यार से जज्ब करना मेरी खुशबु 
और सुलगा देना मेरा सीना अपनी फूँक से

कितनी खुश थी मैं.....
ये सब याद आने तक !

फिर याद आई वो रात
जब उसने मुझे आजमाया था
मुझसे गुजर कर जब वो निकला था आगे
और लिपट गई थी मैं उसके तलवों से 
उसी चुम्बन की उम्मीद में... 

इस बात का तमाशा उसने कुछ ऐसे बनाया था
छोड़ के मुझे अधजला किसी गैर को अपनाया था
उस रात कि घुटन में मैंने आखरी सांसें ली थी
और खुद को यही समझाया था

कि शायद तुम कभी नहीं समझोगे 
एक प्यास बुझाने को सिगरेट कितना जलती है!