दिन भर के काम से थक कर
जब चूर हो जाती हूँ
और दिमाग की सुईं
अटक जाती है किसी बात पर
तब मैं भी हार मान लेती हूँ
और ताकने लगती हूँ अपने अन्दर
पता चलता है की मैंने
बड़ी महनत से कड़ी कर दी है
अपने भीतर एक दीवार
जो खुद से अलग कर रही है मुझे
उस दीवार के उस पार
एक अलग मैं हूँ
सब जिम्मेदारियों से दूर
उन्मुक्त, चंचल, नटखट
पर उस 'मैं' को घेरे है एक और 'मैं'
जिसने सीख लिया है बोझ उठाना
और खुद को परिस्तिथि के अनुसार
ढाले चल रही है
जिसे
वक़्त ने सिखा दिया है रंग बदलना
'मैं' घिर गई हूँ
'मैं' बँट गई हूँ
'मैं' बाहर भी हूँ, भीतर भी
'मैं' सूक्ष्म भी हूँ, साक्ष्य भी
'मैं' वजह भी हूँ, बेवजह भी
ये दीवार ईंट दर ईंट बढ़ रही है
मैं डर रही हूँ
जब ढांचा तैयार होगा तब क्या?
क्या मैं हमेशा के लिए कैद हो जाऊँगी?
या शायद आज़ाद हो जाऊँगी अपने आप से?
सवाल बहुत हैं
पर सुईं अटक गई है
और ये दीवार
दीवार ईंट दर ईंट बढ़ रही है